Saturday, November 14, 2009

प्रकरण -२ (अपभ्रंश काव्य),प्रकरण ४-फुटकल रचनाये

प्रकरण -२ (अपभ्रंश काव्य),प्रकरण ४-फुटकल रचनाये

प्रकरण -२ (अपभ्रंश काव्य ) हेमचन्द्- गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह (संवत ११५०-११९९)और उनके भतीजे कुमारपाल (संवत १११९-१२३०)के यहाँ इनका बड़ा मान था। वे अपने समय के प्रसिध जैन आचार्य थे| इन्होंने एक भारी व्याकरण ग्रन्थ 'सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन ' सिद्धराज के समय में बनाया , जिसमे संस्कृत प्राकृत और अपभ्रंश तीनो का समावेश है । अपभ्रंश के उदाहरनो में इन्होने पुरे दोहे या पढ़ उद्धरित किये है । भल्ला हुआ जु मारिया बहिणी महारा कंतु । लज्जेजं तु वयन्सिअहू जई भग्गा घरु एंतु। (भला हुआ जो मारा गया , हे बहिन ! हमारा कान्त । यदि वह भागा हुआ घर आता तो हम सम्व्यस्काओ से लज्जित होती । अपने व्याकरण के उदाहरणों के लिए हेमचन्द्र ने भट्टी के समान एक 'द्ब्याश्रय काव्य ' की भी रचना है । जिसमें 'कुमारपालचरित' नामक एक प्राकृत काव्य भी है । इस काव्य में भी अपभ्रंश के पध रखे गए हैं । सोमप्रभ सूरी- ये भी एक जैन पंडित थे । इन्होंने संवत १२४१ में 'कुमारपालप्रतिबोध' नामक एक गधपधमय संस्कृत -प्राकृत -काव्य लिखा जिसमें समय -समय पैर हेमचन्द्र द्वारा कुमारपाल को अनेक प्रकार के उपदेश दिए जाने की कथाए लिखी है । यह ग्रन्थ अधिकांश प्राकृत में ही है -बीच -बीच में संस्कृत श्लोक और अपभ्रंश के दोहे आए हैं अपभ्रंश के पधों में कुछ तो प्राचीन हैं और कुछ सोमप्रभ और सिद्धिपल कवि के बनाए है । रावण जायउ जहि दिअही दह मुह एक सरीरु । चिंताविय तेईयही जननी कवणु प्रियावउं खीरू । । जिस दिन दस मुह एक शरीर वाला रावण उत्पन्न हुआ तभी माता चिन्तित हुई कि दूध किसमे पिलाऊ । जैनचार्य मेरुतुन्ग- इन्होने सम्वत १३६१ मे ’ प्रबन्धचिन्तामनि ’ नामक एक संस्कृत ग्रन्थ ’भोजप्रबन्ध’ के ढंग का बनाया जिसमे बहुत से पुराने राजाओ के आख्यान सन्ग्रिहीत किए । इन्ही आख्यानो के अन्तर्गत बीच-बीच मे अप्भ्रन्श के पध भी उदृधत है जो बहुत पहले से चले आते थे । कुछ दोहे तो राजा भोज के चाचा मुन्ज के कहे हुए है । मुन्ज के दोहे अप्भ्रन्श या पुरानी हिन्दी के बहुत ही पुराने नमुने कहे जा सकते है । मुन्ज ने जब तैलान्ग देश पर चढाई की तब वहा के राजा तैलप ने उसे बन्दी कर लिया था और रस्सियो से बान्धकर अपने यहा ले गया था । वहा उसके साथ तैलप की बहिन मृनालबती से प्रेम हो गया । इस प्रसन्ग के दोहे देखिए- झाली तुट्टी किं न मुउ , कि न हुएउ छरपुंज । हिन्दइ दोरी बन्धीयउ जिम मंकट तिम मुन्ज ॥ (टूट पड़ी हुई आग से क्यो न मरा ? क्यो न हो गया ? जैसे डोरी मे बन्धा बन्दर वैसे घूमता है मुन्ज । फुटकल रचनाओं के अतिरिक्त वीरगाथाओं की परम्परा के प्रमाण भी अप्भ्रन्श मिली भाषा मे मिलते है । विधाधर- इस नाम के एक कवि ने कन्नौज के किसी राठौर सम्राट (शायद जयचन्द) के प्रताप और पराक्रम का वर्णन किसी ग्रन्थ मे किया था। ग्रन्थ का पता नही पर कुछ पध प्राकृत पिन्गल सूत्र मे मिलते है। जैसे-भअ भज्जिअ बन्गा भन्गु कलिन्गा तेलन्गा रण मुत्ति चले। मरहटठा धीटठा लग्गिअ कटठा सोरटठा पाअ चले॥ चंपारण कम्पा पब्बअ झम्पा उत्थी उत्थी जीव हरे। कासीसर राणा किअउ पआण बिज्जाहर भण मन्तिवरे॥ यदि विद्याधर को सम्सामयिक कवि माना जाय तो उसका समय विक्रम की १३वि शताब्दी मे समझा जा सकता है।
- इनका आयुर्वेद का ग्रन्थ तो प्रसिध ही है। ये अच्छे कवि और सूत्रकार भी थे। इन्होने शार्ड.गधर
शार्ड.गधर - इनका आयुर्वेद का ग्रन्थ तो प्रसिध ही है। ये अच्छे कवि और सूत्रकार भी थे। इन्होने शार्ड.गधर पधति के नाम से एक सुभाशित सन्ग्रह भी बनाया है और अपना परिचय भी दिया है। रनथम्भौर के सुप्रसिध वीर महाराज हम्मीरदेव के प्रधान सभासदो मे राधवदेव थे। उनके भोपाल,दामोदर और देवदास ये तीन पुत्र हुए शाय्न्गधर, लक्ष्मीधर , और कृष्णा । हम्मीरदेव सम्वत १३५७ मे अल्लाउद्दीन की चढाई मे मारे गए थे। अत: उनके ग्रन्थो के समय उक्त सवत के कुछ पिचे विक्रम की १४वी शताब्दी के अन्तिम चरण मे मानना चाहिए।
इस पधति मे बहुत से शाबर मन्त्र और भाषा - चित्र काव्य दिए है। जिनमे बिच बिच मे देशभाषा के वाक्य आए है। परम्परा से प्रसिद्ध है कि उन्होने हम्मीर रासो नामक एक वीरगाथा काव्य की भी भाषा मे रचना की थी | यह काव्य आजकल नही मिलता -उसके अनुकरण पर बहुत पीछे का लिखा हुआ एक ग्रन्थ 'हम्मीर रासो ' नाम का मिलता है |प्रकृति -पिंगल सूत्र ' उलटते पलटते मुझे हम्मीर की चढाई वीरता आदि के की पद्ध छंदों के उदाह्राओ में मिले | मुझे पुरा निश्चय है की ये पद्ध असली 'हम्मीर रासो' के ही है अत: ऐसे कुछ पद्ध निचे दिए जाते है -
ढोला मारिय ढिल्ली महं मुच्छिऊ मेच्छ सरीर|
षुर जज्जल्ला मंतिवर चलिअ बीर हम्मीर ||
चलि अ बीर हम्मीर पाअभर मेंइणी कं पई |



दिल्ली में ढोल बजाय गया म्लेच्छों के शरीर मुर्छित हुए | आगे मन्त्रिवर जजज्ल को करके वीर हम्मीर चले |चरणों के भर से पृथ्वी कापती है दिशाओ के मार्गो और आकाश में अँधेरा हो गया है ,धुल सूर्य के रथ को आच्छादित करते है | ओल में खुरासानी ले आए विपक्षियो को दल मल क्र दबाया ,दिल्ली में ढोल बजाया |
अपभ्रंश की रचनाओ परम्परा यही समाप्त होती है | यधपि ५० -६० वर्ष पहले विद्यापति (संवत १४६० में वर्तमान ) में बिच बिच में देशः भाषा के भी कुछ पद्ध रख कर अपभ्रंश में दो छोटी छोटी पुस्तके लिखी ,पर उस समय तक अपभ्रंश का स्थान देश भाषा ले चुकी थी | प्रसिद्ध भाषा तत्व विद सर जार्ज ग्रियर्सन जब विद्यापति के पदों का संग्रह कर रहे थे उस समय उन्हें पता लगा था की कीर्तिलता aur क्रितिपताका नाम की प्रशस्ति सम्बन्धी दो पुस्तके भी उनकी लिखी है|पर उस समय इनमे से किसी का पता न चला | थोड़े दिन हुए महामहोपध्याय पंडित हर प्रसाद शास्त्री नेपाल गये थे| वह राजकीय पुस्तकालय में कीर्ति लता की एक प्रति मिली जिसकी नकल उन्होंने ली
इस पुस्तक में तिरहुत के राजा कीर्ति सिंह की वीरता ,उदारता ,गुन ग्राहकता आदि का वर्णन ,बिच में कुछ देश भाषा के पद्ध रखते हुए अपभ्रंश भाषा के दोहा ,चौपाई ,छप्पय ,छंद ,गाथा आदि छन्दों में किया गया है अपभ्रंश की विशेषता यह है की यह की यह पूर्वी अपभ्रंश है |दूसरी विशेषता यह है की प्रायः देशभाषा कुछ कुछ अधिक लिए हुए है और उसमे तत्सम ,संस्कृत शव्दों का वैसा बहिस्कार नही है |तात्पर्य यह है की वः प्राकृत की रूढीओ से उतनी अधिक बंधी नही है | जैसे - रज्ज लुद्ध असलान बुद्धि बिक्क्म बले हारल |
पास बइसी बिस्बासिरय गय्नेसर भारत ||
भारांत राय रंरोल पंडू मेइनि हां हां साध हुअ|
सुरराय नयर नरअर रमनी बम नयन पप्फुरिया धूअ||
अपभ्रंश की कविताओ के जो नए पुराने नमूने अब तक दी जा चुके है, उनसे इस बात का ठीक अनुमान हो सकता है की काव्यभाषा प्राकृत की रूढीओ से कितनी बंधी हुई चलती है| बोलचाल तक के तत्सम संस्कृत शव्दों का पूरा वहिष्कारउसमे पाया जाता है |उपकार,नगर ,विधा ,वचन ,ऐसे प्रचलित शव्द भी उअआर,नअर ,बिज्जा बअन बनाकर ही रखे जाते है |जासु, तासु ऐसे रूप बोलचाल से उठ जाने पर भी पोथियो में बराबर चलते रहे |विशेषण विशेस्यके बीच विभाक्तियो का समानाधिकार अपभ्रंश काल में कृदंत विशेषणों से बहूत कुछ उठ चुका था, पर प्राकृत की परम्परा के अनुसार अपभ्रंश की कविताओं में कृदंत विशेषणों में मिलता है-जैसे जुब्बन गयुं न झूरि गए को यौवन को न झुर -गए यौवन को न पछता |जब ऐसे उदाहरणों के साथ हम ऐसे उदाहरण भी पाते हैं | जिनमे विभाक्तियो का एसा समानाधिकरण नही है तब यह निश्चय हो जाता है की उसका सन्निवेश पुरानी परम्परा का पालन मात्र है | इस परम्परापालन का निश्चय शब्दों की परीक्षा से अच्छी तरह हो जाता है| जब हम अपभ्रंश के शब्दों में मिट्ठ और मीठी दोनों रूपों का प्रयोग पाते हैं तब उस काल में मीठी शब्द के प्रचलित होने में क्यों संदेह हो सकता हैं ?
ध्यान देने पर यह बात भी लक्षित होगी की ज्यों-ज्यों काव्यभाषा देशभाषा की ओर अधिक प्रबृत होती गई त्यों-त्यों तत्सम संस्कृत रखने में संकोच भी घटता गया | शाड़गर्धर के पधों और कीर्तिलता में इसका प्रमाण मिलता हैं |

प्रकरण -4
फुटकल रचनाये
वीर गाथा काल के समाप्त होते होते हमे जनता की बहूत कुछ असली बोल चल और उसके कहे सुने जाने वाले पद्धो के भाषा के बहुत कुछ असली रूप का पता चलता हैं| पता देने वाले हैं दिल्ली के खुसरो मियां और तिरहुत के विद्यापति |इनके पहले की जो कुछ संदिग्ध सामग्री मिलती हैं । उस पर प्रकृति की रुढियों का थोड़ा या बहुत प्रभाव अवश्य पाया जाता हैं |लिखित साहित्य के रूप में ठीक बोलचाल की भाषा या जन साधारण के बीच कहे सुने जाने वाले गीत ,पद्ध आदि रक्षित रखने की ओर मनो किसी का ध्यान ही नही था | जैसे पुराना चावल ही बडे आदमियों के खाने योग्य समझा जाता हैं वैसे ही अपने समय से कुछ पुराणी पडी हुई परम्परा के गौरव से युक्त भाषा ही पुस्तक रचने वालो के व्यवहार योग्य समझे जाते थे | पश्चिम की बोल चाल ,गीत , मुख चलित ,पद्ध आदि का नमूना जिस प्रकार हम खुसरो की कृति में पाते हैं ,उसी प्रकार बहुत पूरब का नमूना विद्यापति के पदावली में | उसके पीछे फ़िर भक्ति काल कवियों ने प्रचलित देशः भाषा और साहित्य के बीच पुरा पुरा समंजस घटित कर दिया | खुसरो- पृथ्वी राज के मृत्यु (संवत १२४९)के ९० वर्ष पीछे खुसरो ने संवत १३४० के आस पास रचना आरम्भ की | इन्होने गयासुद्दीन बलबन से लेकर अल्लाउद्दीन और कुतुबुद्दीन मुबारक शाह तक कई पठान बादशाहों का जमाना देखा था |ये फारसी के बहुत अच्छे ग्रन्थ कार और अपने समय के नामी कवि थे |इन्क्की मृत्यु संवत १३८८१ में हुई | ये बडे ही विनोदी ,मिलनसार और सह्रदयी थे ,इसी से जनता की सब बातो में पुरा योग देना चाहते थे | जिस ढंग के दोहे तुक बंदिया और पहेलिया आदि साधारण जनता के बोलचाल में इन्ही प्रचलित मिली दुसी ढंग के पद पहेलिया आदि कहने की उत्कंठा इन्हे भी हुई | इनकी पहेलिया और मुकरिया प्रसिद्ध हैं |उनमे उक्ति वैचित्र की प्रधानता थी यधपि रसीले गीत और दोहे भी इन्होने कहे हैं |
यह इस बात की और ध्यान दिला देना और आवश्यक प्रतीत होता हैं की काव्य भाषा का ढाचा अधिकतर शौरसेनी या पुरानी ब्रज भाषा का ही बहुत काल से ही चला आता था अत: जिन पशिमी प्रदेशो की बोलचाल खडी होती थी उनमे भी जनता के बीच प्रचलित पद्धो ,तुकबंदियों आदि की भाषा ब्रज भाषा की ओर झुकी रहती थी |अब भी यछ बात पाई जाती हैं इसी से खुसरो की हिन्दी रचनाओ में भी दो प्रकार की भाषा पी जाती हैं |ठेठ खडी बोलचाल ,पहेलियों ,मुकरियो और दो स्खुनो में ही मिलती हैं -यदपि उनमे भी कही कही ब्रज भाषा की झलक हैं | पर गीतों और दोहो की भाषा ब्रज या मुख्य प्रचलित काव्य भाषा ही हैं|यही ब्रज भाषा देख उर्दू साहित्य के इतिहास लेखक प्रमोद आजाद को यह भ्रम हुआ की ब्रज भाषा से खडी बोली निकल पडी |
खुसरो के नाम पर संगृहित पहेलियो में कुछ प्रक्षिप्त और पीछे की जोड़ी पहेलिया भी मिल गई हैं ,इसमे संदेह नही उदाह्र्ण के लिए हुक्के वाली पहेली लीजिये | इतिहास प्रसिद्ध बात हैं की तम्बाकू का प्रचार हिंदुस्तान में जहांगीर के समय हुआ था |उसकी पहली गोदाम अंग्रेजो की सुरत वाली कोठी थी जिससे तम्बाकू का एक नाम सुरती पड़ गया |इसी प्रकार भाषा के सम्बन्ध में भी संदेह किया जा सकता हैं कि वह मुख परम्परा के बीच कुछ बदल गई होगी ,उसका पुरानापन कुछ निकल गया होगा |किसी अंश तक यह बात हो सकती हैं पर साथ ही यह भी निश्चित हैं कि उसका ढाचा कवियो और चरणों द्वारा व्यवहृत प्राकृत कि रुदियो से जकड़ी काव्य भाषा से भिन्न था |प्रश्न यह उठता हैं कि क्या उस ममी तक भाषा घिसकर इतनी चिकनी हो गई कि जितनी पहेलियो में मिलती हैं|

खुसरो के प्राय: दो सौ वर्ष पीछे की लिखी जो कबीर की बानी की हस्तलिखित प्रति मिली है उसकी भाषा कुछ पन्जाबी लिए राजस्थानी है,पर इसमे पुराने नमूने अधिक है। जैसे,सप्तमी विभक्ति के रुप मे इ (घरि=घर मे)।चला,समाया के स्थान पर चलिया, चल्या, समाइया। उनइ आइ के स्थान पर उनमिवि आइ (झुक आइ) इत्यादि। यह बात कुछ उलझन की अवश्य है पर विचार करने पर यह अनुमान दृढ़ हो जाता है कि खुसरो के समय मे इठ ,बसीत्ठ आदि रुप इठ,बसीठ विसृष्ट बसित्ठ ,बिसित्ठ,बसीठ )हो गए थे।अत: पुराने प्रत्यय आदि भी बोलचाल से बहुत कुछ उठ गए थे। यदि चलिया ,मारिया, आदि पुराने रुप रखे तो पहेलियो के छंद टूट जायेगे, अत: यही धारणा होती है कि खुसरो के समय मे बोलचाल की स्वाभाविक भाषा घिसकर बहुत कुछ उसी रुप मे आ गइ थी जिस रुप मे खुसरो मे मीलती है।कबीर की अपेक्शा खुसरो का ध्यान बोलचाल की भाशा की ओर अधिक रह्ता है। खुसरो का लक्ष्य जनता का मनोरन्जन था। पर कबीर धर्मोपदेशक थे,अत:उनकी बानी पोथियो की भाषा का सहारा कुछ न कुछ खुसरो की अपेक्षा अधिक लिये हुए है।

नीचे खुसरो की कुछ पहेलिया,दोहे और गीत दिए जाते है-

एक थाल मोती से भरा। सबके सिर पर औन्धा धरा ॥

चारो ओर वह थाली फ़िरे। मोती उससे एक न गिरे ॥(आकाश)

एक नार ने अचरज किया। साँप मारि पिंजडे मे दिया।

जो जो साँप ताल को खाए। सूखे ताल साँप मर जाए ॥(दिया बत्ती)

अरथ तो इसका बूझेगा। मुह देखो तो सूझेगा ॥

उपर के शब्दो मे खडी बोली का कितना निखरा हुआ रुप है। अब इनके स्थान पर ब्रजभाषा के रुप देखिए-

चूक भइ कुच्ह वासो एसी। देस छोड़ भयो परदेसी॥

एक नार पिया को भानी। तन वाको सगरा ज्यो पानी।

अब नीचे के दोहे और गीत बिल्कुल ब्रजभाषा अर्थात मुखप्रचलित काव्यभाषा मे देखिये-

हजरत निजामदीन चिश्ती जरजरी बख्श पीर ।

जोइ जोइ ध्यावै तेइ तेइ फ़ल पावै,

मेरे मन की मुराद भर दीजै अमीर ॥

विधापति- अपभ्रन्श के लिए इनका उल्लेख हो चुका है। पर जिसकी रचना के कारण ये मैथिलकोकिल कहलाये वह इनकी पदावली है। इन्होने अपने समय की प्रचलित मैथिली भाषा का व्यवहार किया है। विधापति को बंगभाषा वाले अपनी ओर खीचते है। सर जार्ज ग्रियर्सन ने भी बिहारी और मैथिली को मागधी से निकली होने के कारन हिन्दी से अलग माना है। पर केवल भाषाशास्त्र की दृष्टी से कुछ प्रत्ययो के आधार पर साहित्य का विभाजन नही किया जा सकता। कोइ भाषा कितनी दूर तक समझी जाती है, इसका विचार भी तो आवश्यक होता है। किसी भाषा का समझा जाना अधिकतर उसकी शब्दावली पर अवलम्बित होता है। यदि एसा न होता तो उर्दू और हिन्दी का एक ही साहित्य माना जाता।

खड़ी बोली, बांगडू, ब्रज, राजस्थानी, कन्नौजी, बैसवारी, अवधी आदि मे रुपो और प्रत्ययो का इतना भेद होते हुए भी सब हिन्दी के अन्तर्गत मानी जाती है। इनके बोलने वाले एक दूसरे की बोली समझते है। बनारस, गाजीपुर,गोरखपुर,बलिया आदि जिलो मे आयल-आइल, गयल-गइल, हमरा-तोहरा आदि बोले जाने पर भी वहा की भाषा हिन्दी के सिवाय दूसरी नही कही जाती। कारन है शब्दावली की एकता। अत: जिस प्रकार हिन्दी साहित्य बीसलदेवरासो पर अपना अधिकार रखता है उसी प्रकार विधापति की पदावली पर भी।

विधापति के पद अधिकतर श्रृंगार के ही है,जिनमे नायिका और नायक राधा-कृष्ण है। इन पदो की रचना जयदेव के गीतकाव्य के अनुकरण पर ही शायद की गइ हो। इनका माधुर्य अदभुत है।विधापति शैव थे। उन्होने इन पदो की रचना श्रृंगार काव्य की दृष्टी से की है, भक्त के रुप मे नही। विधापति को कृष्नाभाक्तो की परम्परा मे न समझना चाहिए।

आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए है। इन लिलाओ का दूसरा अर्थ निकालने की आवश्यकता नही।

विधापति सम्वत १४६० मे तिरहुत के राजा शिवसिंह के यहा वर्तमान थे ।

नीचे उनके पद दिए गए है-

विधापति कवि गावल रे, आवि मिलत पिय तोर।

लखिमा देइ बर नागर रे,राय सिवसिंह नहि भोर॥

मोते हिसाब से वीरगाथा काल महाराज हम्मीर के समय तक ही समझना चाहिए। मुसलमानो के जमने पर धर्म से विचलित न होने के लिए व्यापक और ग्राही रुप से प्रचार की ओर ध्यान गया।

इस प्रकार स्थिति के साथ ही साथ भावो तथा विचारो मे परिवर्तन हो गया। बाद मे समय समय पर इस प्रकार के अनेक काव्य लिखे गये।

प्रकरण -२ (अपभ्रंश काव्य),प्रकरण ४-फुटकल rchnaye

प्रकरण -२ (अपभ्रंश काव्य ) हेमचन्द्- गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह (संवत ११५०-११९९)और उनके भतीजे कुमारपाल (संवत १११९-१२३०)के यहाँ इनका बड़ा मान था. वे अपने समय के प्रसिध जैन आचार्य थे| इन्होंने एक भारी व्याकरण ग्रन्थ 'सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन ' सिद्धराज के समय में बनाया , जिसमे संस्कृत प्राकृत और अपभ्रंश तीनो का समावेश है । अपभ्रंश के उदाहरनो में इन्होने पुरे दोहे या पढ़ उद्धरित किये है । भल्ला हुआ जु मारिया बहिणी महारा कंतु । लज्जेजं तु वयन्सिअहू जई भग्गा घरु एंतु। (भला हुआ जो मारा गया , हे बहिन ! हमारा कान्त । यदि वह भागा हुआ घर आता तो हम सम्व्यस्काओ से लज्जित होती । अपने व्याकरण के उदाहरणों के लिए हेमचन्द्र ने भट्टी के समान एक 'द्ब्याश्रय काव्य ' की भी रचना है । जिसमें 'कुमारपालचरित' नामक एक प्राकृत काव्य भी है । इस काव्य में भी अपभ्रंश के पध रखे गए हैं । सोमप्रभ सूरी- ये भी एक जैन पंडित थे । इन्होंने संवत १२४१ में 'कुमारपालप्रतिबोध' नामक एक गधपधमय संस्कृत -प्राकृत -काव्य लिखा जिसमें समय -समय पैर हेमचन्द्र द्वारा कुमारपाल को अनेक प्रकार के उपदेश दिए जाने की कथाए लिखी है । यह ग्रन्थ अधिकांश प्राकृत में ही है -बीच -बीच में संस्कृत श्लोक और अपभ्रंश के दोहे आए हैं अपभ्रंश के पधों में कुछ तो प्राचीन हैं और कुछ सोमप्रभ और सिद्धिपल कवि के बनाए है । रावण जायउ जहि दिअही दह मुह एक सरीरु । चिंताविय तेईयही जननी कवणु प्रियावउं खीरू । । जिस दिन दस मुह एक शरीर वाला रावण उत्पन्न हुआ तभी माता चिन्तित हुई कि दूध किसमे पिलाऊ । जैनचार्य मेरुतुन्ग- इन्होने सम्वत १३६१ मे ’ प्रबन्धचिन्तामनि ’ नामक एक संस्कृत ग्रन्थ ’भोजप्रबन्ध’ के ढंग का बनाया जिसमे बहुत से पुराने राजाओ के आख्यान सन्ग्रिहीत किए । इन्ही आख्यानो के अन्तर्गत बीच-बीच मे अप्भ्रन्श के पध भी उदृधत है जो बहुत पहले से चले आते थे । कुछ दोहे तो राजा भोज के चाचा मुन्ज के कहे हुए है । मुन्ज के दोहे अप्भ्रन्श या पुरानी हिन्दी के बहुत ही पुराने नमुने कहे जा सकते है । मुन्ज ने जब तैलान्ग देश पर चढाई की तब वहा के राजा तैलप ने उसे बन्दी कर लिया था और रस्सियो से बान्धकर अपने यहा ले गया था । वहा उसके साथ तैलप की बहिन मृनालबती से प्रेम हो गया । इस प्रसन्ग के दोहे देखिए- झाली तुट्टी किं न मुउ , कि न हुएउ रपुंज । हिन्दइ दोरी बन्धीयउ जिम मंकट तिम मुन्ज ॥ (टूट पड़ी हुई आग से क्यो न मरा ? क्यो न हो गया ? जैसे डोरी मे बन्धा बन्दर वैसे घूमता है मुन्ज । फुटकल रचनाओं के अतिरिक्त वीरगाथाओं की परम्परा के प्रमाण भी अप्भ्रन्श मिली भाषा मे मिलते है । विधाधर- इस नाम के एक कवि ने कन्नौज के किसी राठौर सम्राट (शायद जयचन्द) के प्रताप और पराक्रम का वर्णन किसी ग्रन्थ मे किया था। ग्रन्थ का पता नही पर कुछ पध प्राकृत पिन्गल सूत्र मे मिलते है। जैसे-भअ भज्जिअ बन्गा भन्गु कलिन्गा तेलन्गा रण मुत्ति चले। मरहटठा धीटठा लग्गिअ कटठा सोरटठा पाअ चले॥ चंपारण कम्पा पब्बअ झम्पा उत्थी उत्थी जीव हरे। कासीसर राणा किअउ पआण बिज्जाहर भण मन्तिवरे॥ यदि विद्याधर को सम्सामयिक कवि माना जाय तो उसका समय विक्रम की १३वि शताब्दी मे समझा जा सकता है।
- इनका आयुर्वेद का ग्रन्थ तो प्रसिध ही है। ये अच्छे कवि और सूत्रकार भी थे। इन्होने शार्ड.गधर
शार्ड.गधर - इनका आयुर्वेद का ग्रन्थ तो प्रसिध ही है। ये अच्छे कवि और सूत्रकार भी थे। इन्होने शार्ड.गधर पधति के नाम से एक सुभाशित सन्ग्रह भी बनाया है और अपना परिचय भी दिया है। रनथम्भौर के सुप्रसिध वीर महाराज हम्मीरदेव के प्रधान सभासदो मे राधवदेव थे। उनके भोपाल,दामोदर और देवदास ये तीन पुत्र हुए शाय्न्गधर, लक्ष्मीधर , और कृष्णा । हम्मीरदेव सम्वत १३५७ मे अल्लाउद्दीन की चढाई मे मारे गए थे। अत: उनके ग्रन्थो के समय उक्त सवत के कुछ पिचे विक्रम की १४वी शताब्दी के अन्तिम चरण मे मानना चाहिए।
इस पधति मे बहुत से शाबर मन्त्र और भाषा - चित्र काव्य दिए है। जिनमे बिच बिच मे देशभाषा के वाक्य आए है। परम्परा से प्रसिद्ध है कि उन्होने हम्मीर रासो नामक एक वीरगाथा काव्य की भी भाषा मे रचना की थी | यह काव्य आजकल नही मिलता -उसके अनुकरण पर बहुत पीछे का लिखा हुआ एक ग्रन्थ 'हम्मीर रासो ' नाम का मिलता है |प्रकृति -पिंगल सूत्र ' उलटते पलटते मुझे हम्मीर की चढाई वीरता आदि के की पद्ध छंदों के उदाह्राओ में मिले | मुझे पुरा निश्चय है की ये पद्ध असली 'हम्मीर रासो' के ही है अत: ऐसे कुछ पद्ध निचे दिए जाते है -
ढोला मारिय ढिल्ली महं मुच्छिऊ मेच्छ सरीर|
षुर जज्जल्ला मंतिवर चलिअ बीर हम्मीर ||
चलि अ बीर हम्मीर पाअभर मेंइणी कं पई |



दिल्ली में ढोल बजाय गया म्लेच्छों के शरीर मुर्छित हुए | आगे मन्त्रिवर जजज्ल को करके वीर हम्मीर चले |चरणों के भर से पृथ्वी कापती है दिशाओ के मार्गो और आकाश में अँधेरा हो गया है ,धुल सूर्य के रथ को आच्छादित करते है | ओल में खुरासानी ले आए विपक्षियो को दल मल क्र दबाया ,दिल्ली में ढोल बजाया |
अपभ्रंश की रचनाओ परम्परा यही समाप्त होती है | यधपि ५० -६० वर्ष पहले विद्यापति (संवत १४६० में वर्तमान ) में बिच बिच में देशः भाषा के भी कुछ पद्ध रख कर अपभ्रंश में दो छोटी छोटी पुस्तके लिखी ,पर उस समय तक अपभ्रंश का स्थान देश भाषा ले चुकी थी | प्रसिद्ध भाषा तत्व विद सर जार्ज ग्रियर्सन जब विद्यापति के पदों का संग्रह कर रहे थे उस समय उन्हें पता लगा था की कीर्तिलता aur क्रितिपताका नाम की प्रशस्ति सम्बन्धी दो पुस्तके भी उनकी लिखी है|पर उस समय इनमे से किसी का पता न चला | थोड़े दिन हुए महामहोपध्याय पंडित हर प्रसाद शास्त्री नेपाल गये थे| वह राजकीय पुस्तकालय में कीर्ति लता की एक प्रति मिली जिसकी नकल उन्होंने ली
इस पुस्तक में तिरहुत के राजा कीर्ति सिंह की वीरता ,उदारता ,गुन ग्राहकता आदि का वर्णन ,बिच में कुछ देश भाषा के पद्ध रखते हुए अपभ्रंश भाषा के दोहा ,चौपाई ,छप्पय ,छंद ,गाथा आदि छन्दों में किया गया है अपभ्रंश की विशेषता यह है की यह की यह पूर्वी अपभ्रंश है |दूसरी विशेषता यह है की प्रायः देशभाषा कुछ कुछ अधिक लिए हुए है और उसमे तत्सम ,संस्कृत शव्दों का वैसा बहिस्कार नही है |तात्पर्य यह है की वः प्राकृत की रूढीओ से उतनी अधिक बंधी नही है | जैसे -रज्ज लुद्ध असलान बुद्धि बिक्क्म बले हारल |
पास बइसी बिस्बासिरय गय्नेसर भारत ||
भारांत राय रंरोल पंडू मेइनि हां हां साध हुअ|
सुरराय नयर नरअर रमनी बम नयन पप्फुरिया धूअ||
अपभ्रंश की कविताओ के जो नए पुराने नमूने अब तक दी जा चुके है, उनसे इस बात का ठीक अनुमान हो सकता है की काव्यभाषा प्राकृत की रूढीओ से कितनी बंधी हुई चलती है| बोलचाल तक के तत्सम संस्कृत शव्दों का पूरा वहिष्कारउसमे पाया जाता है |उपकार,नगर ,विधा ,वचन ,ऐसे प्रचलित शव्द भी उअआर,नअर ,बिज्जा बअन बनाकर ही रखे जाते है |जासु, तासु ऐसे रूप बोलचाल से उठ जाने पर भी पोथियो में बराबर चलते रहे |विशेषण विशेस्यके बीच विभाक्तियो का समानाधिकार अपभ्रंश काल में कृदंत विशेषणों से बहूत कुछ उठ चुका था, पर प्राकृत की परम्परा के अनुसार अपभ्रंश की कविताओं में कृदंत विशेषणों में मिलता है-जैसे जुब्बन गयुं न झूरि गए को यौवन को न झुर -गए यौवन को न पछता |जब ऐसे उदाहरणों के साथ हम ऐसे उदाहरण भी पाते हैं | जिनमे विभाक्तियो का एसा समानाधिकरण नही है तब यह निश्चय हो जाता है की उसका सन्निवेश पुरानी परम्परा का पालन मात्र है | इस परम्परापालन का निश्चय शब्दों की परीक्षा से अच्छी तरह हो जाता है| जब हम अपभ्रंश के शब्दों में मिट्ठ और मीठी दोनों रूपों का प्रयोग पाते हैं तब उस काल में मीठी शब्द के प्रचलित होने में क्यों संदेह हो सकता हैं ?
ध्यान देने पर यह बात भी लक्षित होगी की ज्यों-ज्यों काव्यभाषा देशभाषा की ओर अधिक प्रबृत होती गई त्यों-त्यों तत्सम संस्कृत रखने में संकोच भी घटता गया | शाड़गर्धर के पधों और कीर्तिलता में इसका प्रमाण मिलता हैं |
प्रकरण -4
फुटकल रचनाये
वीर गाथा काल के समाप्त होते होते हमे जनता की बहूत कुछ असली बोल चल और उसके कहे सुने जाने वाले पद्धो के भाषा के बहुत कुछ असली रूप का पता चलता हैं| पता देने वाले हैं दिल्ली के खुसरो मियां और तिरहुत के विद्यापति |इनके पहले की जो कुछ संदिग्ध सामग्री मिलती हैं । उस पर प्रकृति की रुढियों का थोड़ा या बहुत प्रभाव अवश्य पाया जाता हैं |लिखित साहित्य के रूप में ठीक बोलचाल की भाषा या जन साधारण के बीच कहे सुने जाने वाले गीत ,पद्ध आदि रक्षित रखने की ओर मनो किसी का ध्यान ही नही था | जैसे पुराना चावल ही बडे आदमियों के खाने योग्य समझा जाता हैं वैसे ही अपने समय से कुछ पुराणी पडी हुई परम्परा के गौरव से युक्त भाषा ही पुस्तक रचने वालो के व्यवहार योग्य समझे जाते थे | पश्चिम की बोल चाल ,गीत , मुख चलित ,पद्ध आदि का नमूना जिस प्रकार हम खुसरो की कृति में पाते हैं ,उसी प्रकार बहुत पूरब का नमूना विद्यापति के पदावली में | उसके पीछे फ़िर भक्ति काल कवियों ने प्रचलित देशः भाषा और साहित्य के बीच पुरा पुरा समंजस घटित कर दिया | खुसरो- पृथ्वी राज के मृत्यु (संवत १२४९)के ९० वर्ष पीछे खुसरो ने संवत १३४० के आस पास रचना आरम्भ की | इन्होने गयासुद्दीन बलबन से लेकर अल्लाउद्दीन और कुतुबुद्दीन मुबारक शाह तक कई पठान बादशाहों का जमाना देखा था |ये फारसी के बहुत अच्छे ग्रन्थ कार और अपने समय के नामी कवि थे |इन्क्की मृत्यु संवत १३८८१ में हुई | ये बडे ही विनोदी ,मिलनसार और सह्रदयी थे ,इसी से जनता की सब बातो में पुरा योग देना चाहते थे | जिस ढंग के दोहे तुक बंदिया और पहेलिया आदि साधारण जनता के बोलचाल में इन्ही प्रचलित मिली दुसी ढंग के पद पहेलिया आदि कहने की उत्कंठा इन्हे भी हुई | इनकी पहेलिया और मुकरिया प्रसिद्ध हैं |उनमे उक्ति वैचित्र की प्रधानता थी यधपि रसीले गीत और दोहे भी इन्होने कहे हैं |
यह इस बात की और ध्यान दिला देना और आवश्यक प्रतीत होता हैं की काव्य भाषा का ढाचा अधिकतर शौरसेनी या पुरानी ब्रज भाषा का ही बहुत काल से ही चला आता था अत: जिन पशिमी प्रदेशो की बोलचाल खडी होती थी उनमे भी जनता के बीच प्रचलित पद्धो ,तुकबंदियों आदि की भाषा ब्रज भाषा की ओर झुकी रहती थी |अब भी यछ बात पाई जाती हैं इसी से खुसरो की हिन्दी रचनाओ में भी दो प्रकार की भाषा पी जाती हैं |ठेठ खडी बोलचाल ,पहेलियों ,मुकरियो और दो स्खुनो में ही मिलती हैं -यदपि उनमे भी कही कही ब्रज भाषा की झलक हैं | पर गीतों और दोहो की भाषा ब्रज या मुख्य प्रचलित काव्य भाषा ही हैं|यही ब्रज भाषा देख उर्दू साहित्य के इतिहास लेखक प्रमोद आजाद को यह भ्रम हुआ की ब्रज भाषा से खडी बोली निकल पडी |
खुसरो के नाम पर संगृहित पहेलियो में कुछ प्रक्षिप्त और पीछे की जोड़ी पहेलिया भी मिल गई हैं ,इसमे संदेह नही उदाह्र्ण के लिए हुक्के वाली पहेली लीजिये | इतिहास प्रसिद्ध बात हैं की तम्बाकू का प्रचार हिंदुस्तान में जहांगीर के समय हुआ था |उसकी पहली गोदाम अंग्रेजो की सुरत वाली कोठी थी जिससे तम्बाकू का एक नाम सुरती पड़ गया |इसी प्रकार भाषा के सम्बन्ध में भी संदेह किया जा सकता हैं कि वह मुख परम्परा के बीच कुछ बदल गई होगी ,उसका पुरानापन कुछ निकल गया होगा |किसी अंश तक यह बात हो सकती हैं पर साथ ही यह भी निश्चित हैं कि उसका ढाचा कवियो और चरणों द्वारा व्यवहृत प्राकृत कि रुदियो से जकड़ी काव्य भाषा से भिन्न था |प्रश्न यह उठता हैं कि क्या उस ममी तक भाषा घिसकर इतनी चिकनी हो गई कि जितनी पहेलियो में मिलती हैं|